गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

बेटिकट सिमरिया चलंतिका


  सिमरिया  सुपरफास्ट 



चांदी  जैसा तन  है तेरा 

ढूंढो तो जानूं सिम-सिम सिमरिया  

सिमरिया का ओल ,कबकब बोल 



 एडवांस बुकिंग चालू
छविगृह खाली ,प्रेक्षागृह  हाउसफुल 


सिमरिया घाट :कम धुआं ज्यादा राख 










बेगू 'सराय'  के बुद्धि-जीवी 

दिनकर भवन चौराहा 
अड़ीबाज  या  चायबाज 

भावी इतिहास हमारा है 



निपनिया के पनिया 
कथाकार  अरुण प्रकाश 

रंगकर्म की नर्सरी 

सिमरिया का प्रतिबिम्ब 

ईंट ईंट जो बिखर  गया किस तापस का ?


गाँव की चिंता में क्यों हो महाकवि 

बोलता  हुआ इतिहास 


गढ़हारा यानी जो 'गढ़'  हमने  हांरा 

फिरंगिया शिकारी जिम कार्बेट 

 सिमरिया या सिंह्मरिया 

पनिया के जहाज से सिमरिया घाट जैहो 



एक टिकट ,अनेक सवार :रामधारी लगा दो नैया पार 


बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

डाकघर से कफ़न और खिडकी से फूल



बेगूसराय का दिनकर प्रेक्षागृह  इन दिनों पुरानी कहानियों में नए रंग भर रहा है.२३ से २६ जून के बीच टैगोर की कहानियों को उनकी १५०वीं सालगिरह पर रंग-छवियों से भरकर आम जनता तक पहुँचाया जा रहा है.पत्नी का पत्र,रक्तकरबी,विषादकाल और डाकघर.   कहानी 'डाकघर' जीजिविषा,स्वतंत्रता और आनंद की खोज में बेचैन मनुष्य के लिए राजा का कफ़न लेकर आती है.एक क्रूर और बंद दुनिया में तडपती सहज मानव इच्छा की शत्रु क्या नहीं है?वह शास्त्र प्रपंचित वैद्य जो कफ पित वात में असुंतलन के नाम पर देह और मन को गुलाम बनाता है;वह परिवार जो रौशनी और हवा से महरूम कमरे में रक्त-सृजन की हिफाजत देखता है;वह सामंती संरचना जो सत्ता और जन के बीच दलाल है;वह राजा जो जन के खून-पसीने पर अपना ताज चमकाता है.बालमनोविज्ञान की तकनीक  पर रचित इस महान कथा में एक  परिचित टैगोरी खिडकी है जिससे सहज  मानव-मन विराट संसार से जुड़ना चाहता है,और अपनी मुक्ति का मार्ग  पाना चाहता है.
                  कहानी में खिडकी वह सन्दर्भ  है जहाँ से मनुष्य मन को पहाड़,झील खेत,नदी के पार अनंत यात्रा चाहिए,दही बेचने वाले से लोकसंगीत और श्रम का सुख चाहिए,बालजगत से किलकारियों से भरा  स्वच्छंद बचपन चाहिए,फ़कीर से आवारागर्दी और सूफियाना सुरूर चाहिए और फूल चुनने वाली लड़की से फूल  सी मासूम,खुशबूदार और रंगों से भरी मुहब्बत भी.पहाड़ की चोटी पर बैठे राजा से चिट्ठी में लिखे वे हर्फ़ जो जन को आनंद और स्वतंत्रता से भर सके.कथा का अंत कितना दुखांत है! उसे मिलता क्या है?चिट्ठी के रूप में राजा का दंड-कफ़न  जो उसकी मौत की गारंटी है.और आखिर में खिडकी के बाहर  उस  गली वाली लड़की से फूल-गुच्छ जो है तो प्रेम का प्रतीक लेकिन  कफ़न में लिपटे किशोर की श्रद्धांजलि के प्रतीक  में बदल जाता है.इतनी सुखांत जिजीविषा का इतना दुखांत अंत. निर्देशक  रणधीर कुमार ,पटना की रंग टीम इस  जटिल संवेदना को जितनी सहजता प्रस्तुत करती है  वह कबीले-तारीफ़  है.
                   क्या यह कथा कई स्तरों पर समय के जटिल यथार्थ को नहीं खोलती है?क्या यह केवल  एक  किशोर की रोग-मृत्यु कथा है?क्या यह केवल एक मनुष्य की स्वतंत्रता और आनंद की खोज-कथा है?क्या यह केवल  ब्राहमणवाद और सामंती संरचना में जकड़ी आत्मा  की तड़प-कथा है? क्या यह केवल  चौधरी और राजा के नये डाकघर यानी साम्राज्यवाद की कफ़न -कथा है? डाकघर के कागजों पर ये त्रासदियाँ एक साथ  हैं.डाकघर मानव-मुक्ति का वह महामार्ग है जिसे देखने,सुनने ,समझने में थोड़ी सी असावधानी हुई तो तो आनंद का  एक  पत्र अनपढा रह जायेगा.

दिनकर प्रेक्षागृह में 'डाकघर' नाटक का उद्घाटन करता हुआ मैं प्रसन्नचित्त मूर्ख,मित्र सीताराम और आशीर्वाद रंग मंडल के सचिव अमित रोशन

रणधीर कुमार निर्देशित टैगोर की कहानी 'डाकघर' का एक दृश्य

सिमरिया घाट से सामने घाट

हर साल 23 सितंबर को सिमरिया में 'दिनकर जयंती' होती है.कई बार विजेन्द्र बाबू वहाँ गए.उन्हें 'दिनकर राष्ट्रीय सम्मान' भी मिल चुका है. वे इस बार नहीं जा पाएंगे.विगत अगस्त के पहले सप्ताह में मैंने जब फोन कर स्वाथ्य के बारे में पूछा तो बिगरते हुए बोले-तुम्हें मेरी तबीयत की चिंता क्यों हो गई? नाराजगी का कारण था,इधर मैं कुछ महीनों से बात नहीं कर पाया था.13 अगस्त को रात बारह बजे वे नहीं रहे.पता चला कि गठिया और दम्मा के कारण शरीर ने काम करना बंद कर दिया.पटना के अस्पताल में 76 की अवस्था में निधन हो गया.सिमरिया से उनका इतना लगाव था कि उनकी चिता भी वहीँ जली. विजेन्द्र बाबू का जन्म 6 जनवरी  1936 को बिहार के समस्तीपुर जिले के विभूतिपुर गांव में हुआ. वे कई जगहों पर पठन-पाठन करते हुए हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय,हिंदी विभाग के अध्यक्ष होकर सेवानिवृत हुए.उनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं-दिनकर:एक पूनर्मूल्यांकन,उर्वशी:उपलब्धि और सीमा,अशुद्ध कविता कि संस्तुति में आदि.पिछले साल बेगूसराय में   'बुरे समय में नींद' पर हुई बहस का अध्यक्षीय वक्तव्य बहुत दुखी मन से यहाँ दे रहा हूँ. उनसे जुड़कर गरम विचार से जुड़ने जैसा महसूस होता था-रामाज्ञा शशिधर 


विजेन्द्र नारायण सिंह

बड़ा विलक्षण गांव है सिमरिया। इतने ही अल्प समय में एक बड़ी प्रतिभा के बाद दूसरी प्रतिभा खड़ी हो गई। रामधारी और रामाज्ञा । 
      दिनकर और शशिधर। रामधारी सिंह दिनकर और रामाज्ञा राय शशिधर। यह क्रम है सिमरिया घाट का सामने घाट तक पहुँचने का। सिमरिया घाट से सामने घाट वैचारिक यात्रा का क्रम है, लेकिन भौगोलिक यात्रा का क्रम है सामने घाट से सिमरिया घाट। क्योंकि गंगा का प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर होता है। असल में ये दोनों घाट एक मेटाफरबन जाते हैं।
       हम उस युग में अब जी रहे हैं जहां दुनिया बदल गयी है। जिस दुनिया में हम पैदा हुए थे, हमारा बचपन बीता था, वह दुनिया अब नहीं रह गई है। भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के रूप में कारपोरेट पूंजीवाद पूरी तरह से स्थापित हो गया है। जितना अधिक कारपोरेट पूंजीवाद स्थापित हुआ, जितनी अधिक पूँजी बैंकों में बही, उसी अनुपात में गांव उजड़ते चले गए। पूंजीवाद के विकास का इतिहास गांव के उजड़ने का इतिहास है, गांव के नष्ट होने का इतिहास है और महानगरों के मजबूत होने का इतिहास है।
          शशिधर की कविताओं की पीड़ा सामने घाट से शुरू होती है और सिमरिया घाट पर जाकर उसका अन्त होता है। वह इसी भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के युग में भारतीय जनता, भारतीय किसान, भारतीय खेतिहर और भारतीय बुनकर की पीड़ा की कविता है। गांव से विश्वग्राम तक की यात्रा का संघर्ष इन कविताओं में आया है। दुनिया उलट गई है। इसलिए बहुत जगह लगता है कि शशिधर उलटबांसीलिखते हैं। पिता आए थे सपने मेंयह उनकी एक कविता का शीर्षक है। जब पिता सपने मे आए थे तो क्या वेदना उफना रदी होती है। अब फसलों के साथ नहीं पकते गीत/गांव के मुहाने पर खड़े नीम का कोई पड़ोसी नहीं/मछुआरे जाल नहीं बुनते/चांदनी की नायलन डोरियों से/चुप्पी नहीं तोड़ती धनकुटनी की धम्मक-धम्म।सब बदल गया। गांवो में अब बैलों से खेती नहीं होती। ट्रैक्टर से होती है। गीत कहां गाएंगे किसान। ट्रैक्टर की आवाज में खेती करने वाले किसान जो बैल जोतते थे, वे गीत नहीं गा सकते हैं।
         सारी दहशत एक उत्तर औद्योगिक सभ्यता है। दुनिया औद्योगिक सभ्यता से भी बाहर निकल कर एक उत्तर औद्योगिक सभ्यता में आ गई है। सभ्यता बदल गई है, संस्कृति बदल गई है और उस दहशत को रामाज्ञा शशिधर, बड़े अच्छे, मार्मिक बिम्बों से व्यक्त करते हैं। एक बिल्ली आती है/जो मुंडेरों पर सहमे/सारे कबूतरों को खा जाती है/ एक पिशाच आता है/जो छप्पर पर अस्थि और खोपड़ी बरसाता है।यह है पूंजीवाद जो सब कुछ निगल गया है, मासूमियत को निगल गया है, सब खाता जा रहा है। जो छोटे हैं वे पूरी तरह नष्ट होते जा रहे हैं।यह पीड़ा है।
         भूमण्डलीकरण में सब कुछ बदल गया है। हिन्दी भाषा बदल गई है। अब हिंग्लिश आ गई है। सारे शब्द अंग्रेजी के हिन्दी में घुस गये हैं। कवि कहता है कि हिन्दी ही क्यों/टमाटर, भिण्डी, गोभी के भी बदल रहे हैं/रूप, रंग, स्वाददेशी बीज नष्ट हो गए। अब देशी बीजों की खेती नहीं होती है। अब डंकल आ गया है। सब कुछ का स्वाद बदल गया है। बुनियादी परिवर्तन है स्वाद का बदलना। सहस्र्राब्दियों के बाद स्वाद बदलता है। एक क्षण में, हमारे आपके जीवन में चीजों का स्वाद बदल गया है। सब्जियों का स्वाद बदल गया है। और तो और एन्द्रिक बोध की दिशा बदल गयी है। ये जल्द नहीं बदला करती। जीभ केवल मैकडॉवल में संतुष्ट नहीं हो सकती। अमरीकी कम्पनी है मैकडॉवल जहां अच्छे खाद्य बनाये जाते हैं। बड़े महंगे। कीमती। पीठ दिखाने लायक होती है महानगर की औरतों की।बड़े-बड़े पूंजीपति जो पैसा कमाते हैं काले धंधे से, वे स्विटजरलैण्ड के बैंक में जमा करते हैं। यहां के गरीब भूखों मरते हैं। यह पूंजीवाद का संकट और मक्कारी भारतीय जीवन को किस प्रकार दरिद्र कर रहा है।
          

                     ‘विदर्भनाम की एक विख्यात कविता है। सबसे अधिक आत्महत्या विदर्भ के किसानांे ने की जहां वे कपास उपजाया करते हैं और उस कपास को बाजार नहीं मिलता है। साल-दर साल घाटा होता है। वे बेटी का ब्याह नहीं कर सकते। बेटे को पढ़ा नहीं सकते और अंत में टूटकर आत्महत्या कर लेते हैं। सेवाग्रामकविता इस अर्थ में विलक्षण है कि जहाँ गाँधीजी ने अपना विख्यात आश्रम स्थापित किया था और वहां शशिधर लिखते हैं अनगिन किसानों की अस्थि राखों पर/खिलते कपास के सफेद फूल।वे कपास के फूल ही किसानों की अस्थियों के रूप विकीर्ण हो गए, उनकी हड्डियों के रूप मंे खेत में विकीर्ण हो गए।
          भूमण्डलीकरण का प्रभाव इतना है कि आदमी का शील बदल गया है। आदमी के शिष्टाचार का ढंग भी । ऐसा अपना हाल/रोज बदलता हूँ सीढ़ी संबंधसीढ़ी-संबंधयह है चरित्र आदमी का। किसी से लाभ उठाया, संबंध बनाया लेकिन जब काम हो गया तो जैसे हम एक सीढ़ी छोड़ दूसरी, तीसरी पर चढ़ जाते हैं। कृतघ्नता इस सभ्यता की मुख्य विशेषता है। यह उत्तर औद्योगिक सभ्यता है। थाली ऐसी बनती है जिसका इस्तेमाल कीजिए, फेंक दीए। चाय कप वैसा ही है, आप इस्तेमाल कीजिए, फेंक दीजिए। सारे बर्तन ऐसे आए हैं, खाइए फेंक दीजिए। उसी तरह रिश्ते भी ऐसे हो गए हैं कि रिश्ते का उपयोग कीजिए फेंक दीजिए। हर आदत दूसरी आदत को प्रभावित करती है। जीवन पद्धति एक दूसरे से जुड़ी हुई होती है। सिमरिया घाट से सामने घाट तक की यात्रा कृषक चेतना की यात्रा है। दिनकर भी कृषक चेतना के कवि थे। शशिधर भी कृषक चेतना के कवि हैं। दोनों भूख के कवि हैं। दिनकर ने भूख की कविता लिखी थी -
     ‘कब्र, कब्र में भूखे बालक की अबोध हड्डी रोती है’,
              और शशिधर भी भूख की कविता लिखते हैं। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में दिनकर रेणुकामें अपनी विख्यात कविता लिख रहे थे और आज इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक भारतीय जीवन से भूख नहीं मिटी है। स्वाधीनता आयी, देशीराज आया लेकिन भूख नहीं गई, गरीबी नहीं गई और खेतिहर पहले जितना बेहाल था उससे अधिक बेहाल हो चला है। यह कैसी स्वाधीनता, कैसा शासन, कैसा राज? इन कविताओं से सीधा सवाल उठता है।
शशिधर का मुहावरा है कि जैसे गिलहरी व्हाइट हाउस में बदल गयी है।बेगूसराय वही नहीं है जो दिनकर का था। बैलों के जो बंधु थे दिनकर की भाषा में उसकी पीड़ा नहीं गई है। उसकी पीड़ा बढ़ती ही चली गई है। मंडल आया 1990 के दशक में और मण्डल से एक नया सामाजिक तनाव 1990 के बाद पैदा होता है। उस तनाव की भी बड़ी बेहतरीन कविता शशिधर ने लिखी है। गह्वर भीतर पांव पड़ गया’-  गह्वर भीतर पांव पड़ गया, गजब हो गया
           मरा हुआ उफ बैल सड़ गया, गजब हो गया
           सिर पर मैंने पगड़ी रख ली, गजब हो गया
           नान्ह कोर की धोती पहनी, गजब हो गया।
जब तक वह वर्गच्यूत नहीं हो जाता है, तब तक ऐसी क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन की कविता कोई कवि नहीं लिख सकता। सामन्ती अत्याचार अब भी है। भारतीय गांव का मूल स्वरूप आज भी नहीं बदला है और उसकी बड़ी मार्मिक कविता है। संग्रह की अति मार्मिक कविताओं में एक हैं यह-
                      मूल-सूद में डीह करारी
                      साहब जी के द्वारे पर ।
                      मसोमाल की खुल गई साड़ी
                      साहेब जी के द्वारे पर
                     चुटकट पान प्रपंची जर्दा
                     साहब जी के द्वारे पर
                     बुढ़िया भी होती है पर्दा
                     साहब जी के द्वारे पर
                  ऐसा लंपट है साहब जी कि बुढ़िया भी लाज ढकने के लिए उसके सामने पर्दा में जाती है। कवि भिखारी ठाकुर ने बिदेसियालिखा था। अंग्रेजीराज में गरीबी आई थी, जिसके कारण नीचे तबके के लोग रोजी-रोटी कमाने के लिए प्रवास में चले जाते थे। उसी की पीड़ा का नाटक था भिखारी ठाकुर का बिदेसिया। देशीराज में प्रवासीपन समाप्त नहीं हुआ है। विस्थापन की पीड़ा का अन्त नहीं हुआ है। जो बाहर जाता है वह छठ में भी नहीं लौट पाता है। उसे छुट्टी नहीं दी जाती है। वह सोचता है कि वहां घर में छठ के पुए बन रहे होंगे, चांद उगा है छठ के दिन वह पुआ जैसा है। पुआ जैसा आंच में झुलस गया चांदउसी प्रकार स्याह पड़ गया है। कवि एक प्राकृतिक दृश्य को लेकर भीतर की वेदना से सादृश्य व्यक्त करता है। एक अच्छे कवि की पहचान यह होती है कि वह अच्छे और मौलिक सादृश्य विधान की खोज करे। पूरी साहित्य साधना में, पूरी काव्य साधना में अगर कोई कवि एक अच्छा मेटाफर, एक बढ़िया सादृश्य विधान ढूंढ़ ले तो समझना चाहिए कि उसकी काव्य साधना सफल हो गई। जब समाज में असंगतिबोध होती है तब कवि उलट बांसी लिखता है। पन्द्रहवी सदी में कबीर ने लिखा था और उसी असंगति बोध से शशिधर लिखते हैं आंचल में आग भरे/नदियों की बाहें/दूध नहीं पानी/देती है गायें।’ ‘चंदन से सांप का समझौता हुआ है/अदल-बदल करने का न्यौता हुआ है।
             

        कई जगह कवि बहुत ही नया और विलक्षण सादृश्य विधान देता है। सिंह और सपूत की तरह शायर भी स्वीकृत मार्ग का परित्याग करता है और इसी में उसकी श्रेष्ठता और महानता निहित होती है। वह लिखता है नये सादृश्य विधान को खोजते हुए -     ‘वर्षों तुम्हें  उपेक्षित छोड़ा/सरपत जितना सड़क किनारे, सड़क किनारे जितने सड़पत हैं उगे हुए, जिसकी आप गिनती नहीं कर सकते। अनगिनत होते हैं। उतनी उपेक्षा तुम्हें मैंने की।
     ‘रख देना चुपचाप हाथ पर सितुआ जैसी घिसी हथेली
     और हथेली जो सितुआ जैसी घिसी हुई है, वो रख देना हाथ पर।
     ‘घर में टूटी चलनी जैसी फेंकी रही झरोखे पर। टूटी को चलनी जैसे झरोखे पर फेंक दिया जाता है। वह उपेक्षा। ये सारे सादृश्य विधान एकदम नये हैं और पहले के किसी कवि में ढँूढ़ने पर भी आप नहीं पा सकते हैं।
               दिनकर का समय दूसरा था। शशिधर का समय दूसरा है। हर कवि अपने समय का होता है। जो समय का कवि होता है, वही शाश्वत होता है। ।
        बड़ा कवि महत्वपूर्ण कवि दिखता है तो अपने समय को जरूर लिखता है। दिनकर का समय स्वच्छंदतावादी था। रोमांटिक युग था। साहित्य में भी और जीवन में भी। इसलिए उन्होंने लिखा कि डुबकी रमजियां लगाती हैं/लट ऊपर ही लहराती हैं/जल मग्न कमल को/देख-रेख मधु पावलियां लहराती है।उनके समय में बाया थी। जो सूखी नहीं थी। भली दुबली-पतली थी। उन्होंने लिखा कि बाया की यह कृश विमल धार।लेकिन शशिधर के समय तक आते-आते बाया सूख गई है, बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में। यह भारतीय गांव का और अधिक सूखने का मेटाफरहै। बाया का सूखना भारतीय जीवन, भारतीय गांव का सूखना मेटाफर के रूप में कविता मंे उभरता है। प्राकृतिक घटना के साथ भारतीय जीवन के बदले हुए स्वरूप का भी यहां बोध होता है। सत्तर वर्षों में भारतीय जीवन के और स्त्रोत भी धीरे-धीरे सूख रहे हैं। स्वाधीनता के बाद जो बुर्जुआ शासन स्थापित हुआ उसने किसी भी तरह देश-प्रदेश का कल्याण नहीं किया। बाया के लुप्त होेने का वर्णन जब वह करते हैं-गंगा की काया में/सटी हुई बाया थी/लुप्त हुई।इसका अर्थ केवल भौगोलिक घटना से अधिक कुछ और हो जाता है। साथ ही रोमांस भी फट गया जीवन का। गदराई चोली की याद आयी/फिल्मी संवाद का संसार गया।जब जीवन इतना कठिन हो जाए, दुर्वह हो जाए तो गदराई चोली का स्वाद किसे याद आएगा? रोमांस के लिए सुखमय जीवन चाहिए। एक सफल जीवन चाहिए। ऐसे जीवन में यथार्थवाद आता है। रोमांटिसिज्म नहीं आता है। स्वच्छदंतावाद नहीं आता है। इसलिए शशिधर यथार्थवाद के प्रवाह में लिखते हैं कि-कास गया, ककड़ी तरबूज गया/अर्थी के बंधन का मूंज गया।अर्थी बांधने के लिए भी मंूज नहीं है। वो भी सूख गयी। इसलिए दिनकर का सिमरिया और शशिधर का सिमरिया एक दूसरे के प्रतिलोम है। इसलिए दिनकर और शशिधर एक प्रकार के कवि नहीं है। वे भिन्न प्रकार के कवि हैं।
         अब सिमरिया घाट शतबार धन्यनहीं रह गया है। रिया, रिया, रिया, रे, रे क्यों क्या किया।अस्पष्ट ध्वनि से एक निष्फलता का बोध होता है। जीवन की एक निष्फलता का बोध होता है और अब विश्व ग्राम का भारत गांव के भारत से पूरी तरह विच्छिन्न हो गया है। एक हिन्दुस्तान रह ही नहीं गया, दो हिन्दुस्तान हैं। टी0वी0 के चैनल पर जो संसार है तथा अपने गांव को देखिए, दोनों में कोई संबंध नहीं है। अमिताभ बच्चन पचास मिनट में लोगों को करोड़पति बना रहे हैं। यहां जीवन भर किसान खटता रहता है, पचास हजार नहीं कमा पाता है। यह उसकी पीड़ा है। यह उसकी दरिद्रता है। इसलिए शशिधर का दुख वही है। उन्होंने एक जगह लिखा है-शशिधर का दुख/राह पड़े कंकर सा।कंकड़ राह में पड़ी होती है, जो चलता है लात मारते हुए चलता है। अब उनका दुख ऐसा क्यों? घाट-घाट का पानी पीने के बाद- सिमरिया घाट से सामने घाट तक- वे अपने सही घाट लग गए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैसी मैंने कहानी सुनी, वे किसी कृपा से प्रवेश नहीं पा सके थे। द्वार पर जय और विजय दो द्वारपाल खड़े थे इनको रोकने के लिए लेकिन धक्का माड़कर ये घुस गए अपने पराक्रम से। मैं उन्हें बधाई देता हूँ कि इस युवावस्था में उन्हें यह सम्मान मिल रहा है। अपने गांव में सम्मान जल्द नहीं मिलता है। या तो मरने के बाद मिलता है या बहुत कृपा हुई तो मरने से थोड़ा पहले मिलता है। उन्हें ये सम्मान मिला। उनकी माताजी को प्रमाण करता हूँ और उन्हें बधाई देता हूँ कि ऐसा बेटा उन्होंने पैदा किया।


साहबजी के द्वारे पर सत्संग लगा है




गंगा में नहा रहा शाम का सूरज 
                            
                          
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राष्ट्रकवि दिनकर का घर जो अब नहीं दिखेगा 


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                             v’Vtke dk lkjk pank
                             lkgcth ds }kjs ij!
                             [kwu dsl dk vxyk Qank
                             Lkkgcth ds }kjs ij !     


                             gj ikVhZ dk >aMk ygjs
                             lkgcth ds }kjs ij !
                             Ysfuu xksM~ls xka/kh ?kgjs
                             Lkkgcth ds }kjs ij !


                            “ka[k tki iksथी  vkSर  lqjek
                            Lkkgcth ds }kjs ij !
                            yksdra= dh tkS dk pqjek
                            lkgcth ds }kjs ij !


                           ;gha dgha ij cjaxn >qjhZnkj [kM+k gS
                           mlds uhps bl cLrh dk U;k; Hkjk gS                               
                   





                  Lwkju
                dksbZ nkar fuiksM+s ;k uhacw fuapksM+s
                [kqjpu ls jxM+s ;k flrqvk [k[kksjs


               dcdckus dh dok;n esjk LoHkko
               D;k d:a feêh ls jgk ,slk yxko

                
               Pkkgs ftl Hkk’kk esa jgwa
               dke d:axk ,slk fd yxwa
               fd yxrk jgwa thHk dks
               rkyq ykj daB dks
               vkRek vek”k; vkar dks
               jlk;u cqf) fopkj dks

               lwju tks gwa HkkbZ!

             
               bruk misf{kr gwa fd
               ekFks ij Qwy ugha
               dysts esa cht ugha
               dyeqgha lwjr  gS
               pgjs ij vkc ugha


               Qkyrw cks>y le; us
               Qsad fn;k xakaBksa ds xqPN dks
               calokM+s] xaMkjs ;k HkV~Bs ds ikao rys


              QSyrk iM+k /khjs&/khsjs
              /kjrh ds xHkkZ”k; dks tcfj;k QSykrk gqvk
              dks[k dk thou ls ,slk gh jj”rk gS


              Lwkju vky caM;k ;k tehdan
              ftl uke ls tks Hkh iqdkj ys
              dcdckgV esa QdZ ugha
              ,d tSlh dok;n gS


              eSfFkyh exagh Hkkstiqjh vo/kh gks
              czt caqnsyh igkM+h esokM+h gks
              gj cksyh es fty tk,axas esjs vkf”kd 
              pks[ks ds lCth ds eqjCcs dsd vpkj ds

             fgUnh gh D;ksaa
            VekVj xaksHkh fHkaM+h ds Hkh
            Ckny jgs gSa :Ik jaxa Lokn pky <ky
            eSa jg x;k vksy dk vksy
            u feyh ukaxfjdrk u Hkwxaksy


                 fonHkZ 
                      
                 lalkj dk lcls cM+k “e”kku
                 /kwlj lysVh dkyk


                Lkalkj dk lcls cM+k dQu
                Ekqyk;e lQsn vkjkensg
               
                Ekf.kdf.kZds
                rqeus fonHkZ ugha ns[kk gS

                      [ksr
           
[ksr ls vkrs gSa Qkalh ds /kkxs
                 [ksr ls vkrh gSa lYQkl dh fVfd;k
                

                 [ksr ls vkrs gSa J)katfy ds Qwy
                 [ksr ls vkrk gS lQsn dQu
               
                 [ksr ls flQZ jksVh ugha vkrh

                        lsokxzke
                    lsokxzke
                      fonHkZ ds ,d “kgj dk uke
                      ;gka xak/kh th dk pj[kk gS
                      xka/kh th dh rdyh gS
                      Xkak/kh th dk lkai idkM+kÅ
                      Xkka/kh th dk VsyhQwu gS

                      ;gka xak/kh th dk ekfyl Vscy gS
                      egkRek xaka/kh varjk’Vªh; fgUnh fo”ofo|ky; gS

                      dLrqjck dqVhj dh Bhd cxy esa
                      ehjk csu dh dqfV;k gS
                        
                      teukyky ctkt dh gosyh gS
                  
                     ;gka iM+ksl ds xakoksa ls pydj vk,
                     eqjCcs pVuh diM+s vpkj gS
                     “kgn mrkjus ds fy, ikslh xbZ efD[k;ka gSa

                        ;s lc izn”kZu dh lkefxz;ka gSa

                       ;gka dsoy ,d pht gSa
                       Tkgka n”kZu gS

                      vufxu fdlkuksa dh vfLFk jk[kksa ij f[kys
                      diklksa ds lQsn Qwy



                     uXurk
                           tks diM+k mxkes gSa
                           os uaxs jgrs gSa

                          tks diM+k cukrs gSa
                          os uaxas jgrs gSa

                          tks j[krs gSa diM+ksa dk xksnke
                          ;gka uXurk jgrh gS
           





                          cqjs le; esa uhan
                      bl cqjs le; esa nsj vcsj vkrh gS uhan
                      uhan ds lkFk gh “kq: gksrk gS liuk
                       
                      lius esa i`Foh vkrh gS ukprh ugha
                      dks;y vkrh gS dwdrh ugha
                      xksjS;k vkrh gS pqXxk ugha pqxrh
                      ckny vkrs gSa cjlrs ugha

                     Qwyksa ls ugha cfr;krh gSa frrfy;ka
                     gok ls nwj Hkkxrh gS xa/k

                     uotkr dks yksfj;kW ugha lqukrh gS ekW
                     ifj;ksa ds egkns”k ugh ?kqekrh ghS nknh

                     lius esa vc iqLrd esys  ugha yxrs gSa
                     csj dh Qfy;ka ugha idrh gSa
                     lIrf’kZ rkjs ugha mxrs gSa

                    nwj&nwj rd nj[r gh ugha fn[krs
                    rks ?kksalyksa dh D;k ckr!
                   

                    Lkius esa xqjkZrk gS “kSrku
                    Tks uXu ewfrZ;ksa dks

                    v{kr vkSj _pkvksa ls
                    txkus dh ps’Vk djrk gS

                    ewfrZ;ka lqaxcqxkrh gSa
                    fQj ewfPNZr gks tkrh gSa

                    lius esa ,d lka<+ vkrk gS
                    tks esjh lfCt;ksa dh ckM+h pj tkrk gS

                    ,d fcYyh vkrh gS
                    Tkks eqaMsj ij lges
                    Lkkjs dcwrjksa dks [kk tkrh gS

                    ,d fi”kkp vkrk gS
                    Tkks esjs NIij ij
                    [kksifM+;ka cjlkrk gS

                    ;g dSlk liuk gS
                    ftlesa dHkh eqxsZ ugha nsrs ckax
                    xaxugkSuh ugha xkrh gS cVxahr

                    jkr pyrh gS
                    pkan dh yk”k da/ks ij mBk,A     
                  

        
                       

                       yM+fd;ksa dk lkbfdy LVS.M

                                  ,d dh xycfg;ka fd, nwljh [kM+h gS
                                  nwljh dh Vkax ij igyh us jD[kh ,M+h
                       


                                 rhljh [khap jgh nwljh dk fjcu
                                 pkSFkh dh flYdh pksVh rhljh ds da/ks ij

                                
                                 ikapoha ukjkt gS pkSFkh dh cnrehth ls
                                 NBh xqelqe dj jgh lkroha dk bartkj


                                 vkBoha ds ryoksaa esa /kwy dhpM+ lus gq,
                                 uoha mlls fpidh tSls ysfLc;u I;kj


                                 nloha gS mpVh gqbZ fpjfpjh capSu
                                 cnu es tSls mB jgk gks tknw tSlk nnZ


                                 X;kjoha dh dej dks lgyk jgh fxygjh
                                 Ckjgoha ij c;k us xM+k jD[kh pksap


                                 Hkys fn[ks rsjgoha ij bfErgku dk Mj
                                 NksM+ mls pkSngoha tk,xh e/kqcu


                                 drkjc) [kM+h gSa yM+fd;ksa dh vkRek,a
                                 vkjtw vkf”kdh nhokuxh reUuk,a


                                 ,ouokyh cksYM ,Vylokyh LekZV
                                 gfj;k gjD;wyl ds mRgM+iu ds D;k dgus


                                 Dykl :e esa lgsfy;ka
                                 vHkh >sy jgh gksaxh flre
                                 Hkwaxksy us HkVdk;k gksxak v{kkal vkSj ns”kkraj ij
                                 bfrgkl us Mkyk gksxk dczksa dk dqN cks>
                                 lkfgR; ds czgjk{kl us ckcM+h esa Mqcks;k gksxk
                                 x`gfoKku us fn;k gksxk iqnhuk esa MkyMk ?kksy


                                
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