बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

डाकघर से कफ़न और खिडकी से फूल



बेगूसराय का दिनकर प्रेक्षागृह  इन दिनों पुरानी कहानियों में नए रंग भर रहा है.२३ से २६ जून के बीच टैगोर की कहानियों को उनकी १५०वीं सालगिरह पर रंग-छवियों से भरकर आम जनता तक पहुँचाया जा रहा है.पत्नी का पत्र,रक्तकरबी,विषादकाल और डाकघर.   कहानी 'डाकघर' जीजिविषा,स्वतंत्रता और आनंद की खोज में बेचैन मनुष्य के लिए राजा का कफ़न लेकर आती है.एक क्रूर और बंद दुनिया में तडपती सहज मानव इच्छा की शत्रु क्या नहीं है?वह शास्त्र प्रपंचित वैद्य जो कफ पित वात में असुंतलन के नाम पर देह और मन को गुलाम बनाता है;वह परिवार जो रौशनी और हवा से महरूम कमरे में रक्त-सृजन की हिफाजत देखता है;वह सामंती संरचना जो सत्ता और जन के बीच दलाल है;वह राजा जो जन के खून-पसीने पर अपना ताज चमकाता है.बालमनोविज्ञान की तकनीक  पर रचित इस महान कथा में एक  परिचित टैगोरी खिडकी है जिससे सहज  मानव-मन विराट संसार से जुड़ना चाहता है,और अपनी मुक्ति का मार्ग  पाना चाहता है.
                  कहानी में खिडकी वह सन्दर्भ  है जहाँ से मनुष्य मन को पहाड़,झील खेत,नदी के पार अनंत यात्रा चाहिए,दही बेचने वाले से लोकसंगीत और श्रम का सुख चाहिए,बालजगत से किलकारियों से भरा  स्वच्छंद बचपन चाहिए,फ़कीर से आवारागर्दी और सूफियाना सुरूर चाहिए और फूल चुनने वाली लड़की से फूल  सी मासूम,खुशबूदार और रंगों से भरी मुहब्बत भी.पहाड़ की चोटी पर बैठे राजा से चिट्ठी में लिखे वे हर्फ़ जो जन को आनंद और स्वतंत्रता से भर सके.कथा का अंत कितना दुखांत है! उसे मिलता क्या है?चिट्ठी के रूप में राजा का दंड-कफ़न  जो उसकी मौत की गारंटी है.और आखिर में खिडकी के बाहर  उस  गली वाली लड़की से फूल-गुच्छ जो है तो प्रेम का प्रतीक लेकिन  कफ़न में लिपटे किशोर की श्रद्धांजलि के प्रतीक  में बदल जाता है.इतनी सुखांत जिजीविषा का इतना दुखांत अंत. निर्देशक  रणधीर कुमार ,पटना की रंग टीम इस  जटिल संवेदना को जितनी सहजता प्रस्तुत करती है  वह कबीले-तारीफ़  है.
                   क्या यह कथा कई स्तरों पर समय के जटिल यथार्थ को नहीं खोलती है?क्या यह केवल  एक  किशोर की रोग-मृत्यु कथा है?क्या यह केवल एक मनुष्य की स्वतंत्रता और आनंद की खोज-कथा है?क्या यह केवल  ब्राहमणवाद और सामंती संरचना में जकड़ी आत्मा  की तड़प-कथा है? क्या यह केवल  चौधरी और राजा के नये डाकघर यानी साम्राज्यवाद की कफ़न -कथा है? डाकघर के कागजों पर ये त्रासदियाँ एक साथ  हैं.डाकघर मानव-मुक्ति का वह महामार्ग है जिसे देखने,सुनने ,समझने में थोड़ी सी असावधानी हुई तो तो आनंद का  एक  पत्र अनपढा रह जायेगा.

दिनकर प्रेक्षागृह में 'डाकघर' नाटक का उद्घाटन करता हुआ मैं प्रसन्नचित्त मूर्ख,मित्र सीताराम और आशीर्वाद रंग मंडल के सचिव अमित रोशन

रणधीर कुमार निर्देशित टैगोर की कहानी 'डाकघर' का एक दृश्य

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